जिस तरह से भारतीय जनता पार्टी ने पहले चरण के मतदान के बाद बंगाल और असम में भारी जीत का दावा किया है वैसे ही गुरुवार को दूसरे चरण के मतदान के बाद भी होगा। भाजपा के बड़े नेता प्रेस कांफ्रेंस करके देश को बताएंगे कि नंदीग्राम से ममता बनर्जी कितने हजार वोट से हार रही हैं और दूसरे चरण की 30 सीटों में से भाजपा कितनी सीटें जीत रही है। पहले चऱण में अमित शाह ने जो अनुमान जताया है उसे देखते हुए लग रहा है कि भाजपा 30 में से 25 से कम सीट जीतने का दावा नहीं करेगी। भाजपा के दावे अपनी जगह हैं और जमीनी हकीकत, बंगाल का चुनावी इतिहास, क्षेत्रीय पार्टियों से लड़ने में भाजपा की कमजोरी, पार्टी का अंदरूनी विवाद और राज्य की जनसंख्या संरचना की वास्तविकता अपनी जगह है। अगर इन सारी कसौटियों पर देखें तो लगेगा कि भाजपा की डगर बहुत मुश्किल है।
सबसे पहले प्रदेशों में जाकर क्षत्रपों को चुनौती देने में भाजपा की विफलता के इतिहास को देखना होगा। एक उत्तर प्रदेश को छोड़ दें तो देश के किसी भी राज्य में भाजपा अकेले दम पर किसी प्रादेशिक क्षत्रप को चुनौती नहीं दे सकी है। महाराष्ट्र में रामदास अठावले और एकाध छोटी-छोटी पार्टियों के साथ लड़ कर 2014 के चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी जरूर बनी थी लेकिन अपने दम पर सरकार नहीं बना पाई थी। दिल्ली से लेकर बिहार और पंजाब से लेकर तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, ओड़िशा, झारखंड तक इसकी अनगिनत मिसालें हैं। प्रादेशिक क्षत्रपों को भाजपा तभी चुनौती दे सकी है जब कोई दूसरा मजबूत प्रादेशिक क्षत्रप उसके साथ हो। जैसे बिहार में नीतीश के साथ मिल कर भाजपा ने कई बार राजद को हराया है पर नीतीश से अलग होकर भाजपा 2015 में पांच पार्टियों के साथ लड़ी थी और उसे उसकी हैसियत का पता चल गया था। लोकसभा के साथ हुए ओड़िशा और आंध्र प्रदेश के चुनाव में भी भाजपा अकेले लड़ कर अपनी ताकत आजमा चुकी है पर जीत अंततः प्रादेशिक क्षत्रपों की हुई। यहां तक कि हैदराबाद नगर निगम के चुनाव में जबरदस्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बावजूद भाजपा को तेलंगाना राष्ट्र समिति और एमआईएम को हराने में कामयाबी नहीं मिली। भाजपा हर राज्य में कांग्रेस से लड़ लेती है लेकिन प्रादेशिक क्षत्रपों से लड़ना उसके लिए मुश्किल होता है।
दूसरी बाधा यह है कि पश्चिम बंगाल में पिछले करीब पांच दशक में किसी राष्ट्रीय पार्टी ने क्षेत्रीय ताकत को चुनौती नहीं दी है। साढ़े तीन दशक तक लेफ्ट का राज रहा तो कभी भी कांग्रेस उसे चुनौती नहीं दे सकी। पिछले 10 साल के तृणमूल कांग्रेस के राज में भाजपा या कांग्रेस उसे चुनौती नहीं दे सके हैं। लोकसभा चुनाव में जरूर राष्ट्रीय पार्टियों को एक निश्चित सफलता मिलती रही है पर विधानसभा चुनाव में राज्य के मतदाता बिल्कुल अलग तरीके से बरताव करते हैं। इसलिए चाहे भाजपा हो या कोई और राष्ट्रीय पार्टी पश्चिम बंगाल में विकल्प बनना उसके लिए आसान नहीं है।
तीसरी बाधा विधानसभा चुनावों में भाजपा का अपने प्रदर्शन का इतिहास है। लोकसभा चुनावों में भाजपा चाहे जितना अच्छा प्रदर्शन करे, विधानसभा चुनावों में उसका वोट जरूर कम होता है। कई राज्यों में तो लोकसभा में मिले वोट के मुकाबले भाजपा के वोट में 10 फीसदी तक की गिरावट आई है। 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद ही भाजपा जितने राज्यों में लड़ी है वहां उसका प्रदर्शन लोकसभा के मुकाबले बहुत कमजोर रहा। महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली, हरियाणा सभी राज्यों में भाजपा की स्थिति बुरी रही। सो, अगर पश्चिम बंगाल में 18 लोकसभा सीट जीतने के आधार पर भाजपा विधानसभा में जीत की उम्मीद कर रही है तो उसे अपना हिसाब फिर से ठीक करना होगा। क्योंकि लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोटिंग हुई थी, जबकि इस बार इस बात पर मतदान हो रहा है कि ममता बनर्जी को मुख्यमंत्री बनाना है या नहीं। चूंकि भाजपा ममता के मुकाबले कोई भी चेहरा पेश नहीं कर पाई है इसलिए ममता को रोकना आसान नहीं होगा।
चौथी बाधा राज्य की जनसंख्या संरचना है। असल में भाजपा की जीत की उम्मीद लगभग पूरी तरह से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर टिकी है। ममता बनर्जी के 10 साल के राज की एंटी इन्कंबैंसी मुद्दा नहीं है, बल्कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण मुद्दा है। परंतु पश्चिम बंगाल की जनसंख्या संरचना ऐसी है कि भाजपा को देश के दूसरे हिस्सों के मुकाबले बहुत ज्यादा ध्रुवीकरण कराना होगा तभी जीत के लायक सीटें मिलेंगी। जिन राज्यों में मुस्लिम आबादी कम है, जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र या यहां तक कि उत्तर प्रदेश में भी मुस्लिम आबादी 15 फीसदी के आसपास है। इन राज्यों में अगर कुल हिंदू वोटों का 50 फीसदी वोट भी भाजपा को मिल जाए तो वह जीतने लायक सीटें हासिल कर लेती है। लेकिन पश्चिम बंगाल में मुस्लिम आबादी 30 फीसदी है इसलिए जीतने लायक सीटें हासिल करने के लिए भाजपा को कुल हिंदू वोट का 60 फीसदी या उससे ज्यादा हासिल करना होगा। सोचें, 60 फीसदी से ज्यादा हिंदू वोट लेने के लिए किस स्तर के ध्रुवीकरण की जरूरत है। क्या पश्चिम बंगाल में इस स्तर का ध्रुवीकरण दिख रहा है?
छठी बाधा बहुत मजबूत एंटी इन्कंबैंसी लहर का नहीं होना है। आमतौर पर 10 साल के राज के बाद सत्तारूढ़ दल के खिलाफ एंटी इन्कंबैंसी होती है। ममता बनर्जी के खिलाफ भी एक निश्चित सत्ता विरोधी लहर दिख रही है। लेकिन ऐसा नहीं है कि लोग ममता से नफरत कर रहे हैं या उन्हें हराने के लिए कमर कसे हुए हैं। बहुत मजबूत सत्ता विरोधी लहर नहीं है। जो विरोध में हैं वे भी आधे-अधूरे मन से बदलाव की बात कर रहे हैं। चूंकि भाजपा की ओर से कोई दावेदार नहीं पेश किया गया और सत्ता विरोधी माहौल बनाने की बजाय भाजपा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयासों में ज्यादा लगी रही। एक गलती यह भी हुई कि ममता बनर्जी के चेहरे पर बहुत ज्यादा फोकस कर दिया गया। यह रणनीति तब काम करती है, जब कोई दूसरा चेहरा मुकाबले में हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ भाजपा ममता को बदलने का दावा तो करती रही, लेकिन उनकी जगह कौन लेगा, यह नहीं बता सकी। दूसरी ओर ममता ने खुद को बांग्ला भाषा और अस्मिता के साथ एकाकार कर दिया। वे प्रतीक बन गईं।
भाजपा अपने लिए इस बात में एडवांटेज देख रही थी कि उसने चुनाव से पहले ममता बनर्जी की पार्टी छिन्न-भिन्न कर दी। उनके कई बड़े नेताओं को तोड़ कर भाजपा में शामिल करा लिया गया। यह निश्चित रूप से तृणमूल कांग्रेस के लिए झटका था। लेकिन इस मामले में भी भाजपा को जो संतुलन रखना चाहिए था वह नहीं रखा गया। दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी होने का दावा करने वाली भाजपा की जब यह हकीकत जाहिर हुई कि उसके पास चुनाव लड़ने के लिए अच्छे उम्मीदवार नहीं हैं तो उसकी चुनावी हवा बिगड़ी। दूसरी पार्टियों से बड़ी संख्या में नेताओं और उम्मीदवारों की भर्ती के दो नुकसान हुए। पहला नुकसान धारणा के स्तर पर हुआ। आम मतदाताओं ने भाजपा की चुनौती को गंभीरता से नहीं लिया। दूसरा, नुकसान पार्टी की अंदरूनी कलह के रूप में हुआ। बाहरी लोगों को ज्यादा तरजीह देने से पार्टी संगठन में बिल्कुल नीचे के स्तर तक नाराजगी हुई और अंदरखाने विरोध शुरू हो गया। कई जगह खुल कर विरोध हुआ, प्रदर्शन हुए, नेताओं का घेराव हुआ, जिसका अंत नतीजा यह हुआ कि पार्टी का संगठन- चाहे जैसा भी था- वह चुप बैठ गया। इन सारी स्थितियों का कुल जमा नतीजा यह है कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल की राजनीति और चुनाव में हलचल तो पैदा कर दी है पर सरकार बनाने लायक बहुमत हासिल करना संभव नहीं दिख रहा है।