अब वैक्सीन के लिए हाहाकार!


वैक्सीन की तुलना ऑक्सीजन से नहीं हो सकती है, लेकिन जिस तरह से देश में इन दिनों ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मचा है वैसे ही वैक्सीन के लिए भी हाकाकार मचने वाला है। राज्यों के पास वैक्सीन खत्म होने लगी है। कई राज्यों में सैकड़ों की संख्या में वैक्सीनेशन केंद्र बंद हो गए हैं या बहुत सीमित क्षमता में काम कर रहे हैं। कई राज्यों ने एक मई से 18 साल से ज्यादा उम्र वालों को वैक्सीन लगाने में अक्षमता जाहिर की है। भारत सरकार ने वैक्सीन की आपूर्ति सुनिश्चित किए बगैर देश के करीब 76 फीसदी आबादी यानी करीब 104 करोड़ लोगों को वैक्सीन लेने के योग्य घोषित कर दिया है, जबकि हकीकत यह है कि पहले चरण में जिन स्वास्थ्यकर्मियों, फ्रंटलाइन वर्कर्स और उच्च जोखिम वाले समूह के 30 करोड़ लोगों को वैक्सीन लगनी थी उसमें से भी सिर्फ 44 फीसदी लोगों को अभी तक वैक्सीन लग पाई है। इसमें भी ज्यादातर लोगों को अभी पहली डोज ही लगी है।

भारत में अभी तक 14 करोड़ लोगों ने टीका लगवाया है, जिसमें से 10 करोड़ के करीब लोगों ने पहली डोज ली है। इसका मतलब है कि सिर्फ चार करोड़ लोग ही ऐसे हैं जो दोनों डोज लेकर पूरी तरह से वैक्सीनेट हो गए हैं। जाहिर है कि अभी एक सौ करोड़ लोगों को पहली या दूसरी या दोनों डोज लगाई जानी बाकी है। इसके लिए दो सौ करोड़ के करीब डोज की जरूरत पड़ेगी। सबको वैक्सीन लगाने की नीति का यह सिर्फ एक पहलू है कि अभी करीब दो सौ करोड़ डोज की जरूरत भारत में है। इसका दूसरा पहलू यह है कि केंद्र सरकार ने राज्यों और निजी अस्पतालों को उनके हाल पर छोड़ दिया है। अब तक वैक्सीनेशन की पूरी प्रक्रिया को केंद्रीकृत करके उसे नियंत्रित कर रही सरकार ने अब इसे अचानक विकेंद्रित कर दिया है। कह दिया है कि राज्य और निजी अस्पताल अपने पैसे से वैक्सीन खरीदें और लोगों को लगवाएं।

वैक्सीन खरीद को विकेंद्रित करने या राज्यों और निजी अस्पतालों को उनके हाल पर छोड़ने के बड़े खतरे हैं। ये खतरे वैक्सीनेशन नीति की घोषणा के बाद पहले ही हफ्ते में दिखने लगे हैं। राजस्थान सरकार ने कहा है कि उसके पास वैक्सीन की कमी हो गई है और एक अप्रैल से 18 साल से ज्यादा उम्र के सभी लोगों को वैक्सीन लगना संभव नहीं हो पाएगा। राजस्थान सरकार के स्वास्थ्य मंत्री रघु शर्मा ने साथ ही यह भी कहा है कि उसने वैक्सीन के लिए सबसे बड़े उत्पादक सीरम इंस्टीच्यूट से संपर्क किया था तो कंपनी की ओर से बताया गया कि वह 15 मई से पहले वैक्सीन की आपूर्ति करने में सक्षम नहीं है। इसी से मिलती-जुलती बात छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री ने टीएस सिंहदेव ने भी कही। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें पता चला है कि असम सरकार ने सीरम इंस्टीच्यूट से वैक्सीन के लिए संपर्क किया तो उसे कहा गया कि एक महीने से पहले आपूर्ति संभव नहीं है। कुछ और राज्य सरकारों ने भी वैक्सीन की कमी और आपूर्ति में होने वाली दिक्कतों की बात कही है।

अब सोचें, अगर वैक्सीन बनाने वाली कंपनियां राज्य सरकारों को समय पर वैक्सीन की आपूर्ति नहीं करती हैं तो देश में चल रहे ‘दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान’ का क्या होगा? इसमें सबसे बड़ी बात यह है कि क्या वैक्सीन बनाने वाली दो कंपनियों के ऊपर यह बात छोड़ दी जाए कि वे तय करें कि किस राज्य को कब और कितनी वैक्सीन दी जाएगी? क्या सीरम इंस्टीच्यूट और भारत बायोटेक का सेल्स मैनेजर तय करेगा कि किस राज्य को कब और कितनी वैक्सीन दी जाएगी? अगर तय करेगा भी तो उसका क्या आधार होगा? क्या जो राज्य पहले ऑर्डर करेंगे उनको पहले और बाद में ऑर्डर करने वाले को बाद में वैक्सीन मिलेगी? या जो राज्य ज्यादा वैक्सीन का ऑर्डर करेगा उसे पहले वैक्सीन मिलेगी? कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि अमीर राज्यों को पहले और गरीब राज्यों को बाद में वैक्सीन मिलेगी? अगर निजी अस्पतालों ने ज्यादा पैसे देकर ज्यादा वैक्सीन खरीदनी शुरू की तो राज्यों का क्या होगा?

जाहिर है वैक्सीनेशन नीति में बदलाव की घोषणा करते समय इस बारे में नहीं सोचा गया या जान बूझकर इसे अनदेखा कर दिया गया। भारत में वैक्सीन बना रही दोनों कंपनियों की कुल उत्पादन क्षमता छह-साढ़े छह करोड़ की है। अगर इन्होंने उत्पादन क्षमता नहीं बढ़ाई तो इनकी मौजूदा क्षमता और आयात के जरिए भारत में वैक्सीन की जरूरत नहीं पूरी हो पाएगी। ऊपर से भारत सरकार ने वैक्सीन उत्पादन का 50 फीसदी हिस्सा अपने पास रखने का फैसला किया है। उसका कहां इस्तेमाल होगा यह स्पष्ट नहीं है।

राज्य सरकार और निजी अस्पताल वैक्सीन के लिए ग्लोबल टेंडर कर सकते हैं। महाराष्ट्र सरकार टेंडर करने जा रही है। लेकिन उसमें भी कौन हिस्सा लेगा? भारत में तो दो ही कंपनियां वैक्सीन बना रही हैं और दुनिया के दूसरे देशों की भी सिर्फ चार वैक्सीन- फाइजर, मॉडर्ना, जॉनसन एंड जॉनसन और स्पुतनिक-वी को ही मंजूरी मिलने वाली है। सो, ये छह वैक्सीन उत्पादक टेंडर में हिस्सा ले सकते हैं पर यह उनकी मर्जी पर और उनके यहां होने वाले उत्पादन पर निर्भर करेगा कि वे कब तक आपूर्ति कर पाएंगे। इस समय इन कंपनियों को पूरी दुनिया में वैक्सीन की आपूर्ति करनी है। दुनिया के कई देशों ने पहले से एडवांस दे रखा है। कई कंपनियों ने रिसर्च के समय ही इन कंपनियों को अनुदान दिया है। इसलिए इन कंपनियों की मजबूरी है कि वे उन देशों को पहले वैक्सीन सप्लाई करें। सो, ग्लोबल टेंडर करना वैक्सीन की समय पर आपूर्ति का कारगर उपाय नहीं हो सकता है। अगर सब ग्लोबल टेंडर निकालते हैं तो बेवजह राज्यों के बीच एक प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। यह भी हो सकता है कि वैक्सीन की आपूर्ति में भेदभाव का मामला अदालतों में पहुंचे। तो क्या देश इस समय वैक्सीन के मामले में भी अदालती प्रक्रिया का सामने करने के लिए तैयार है?

एक तीसरा पहलू कीमत का है। भारत में वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों ने कीमत बढ़ा दी है। कोवीशील्ड की एक डोज राज्यों को चार सौ और निजी कंपनियों को छह सौ में मिलेगी, जबकि कोवैक्सीन की एक डोज राज्यों को छह सौ और निजी कंपनियों को 12 सौ की मिलेगी। विदेशी वैक्सीन की कीमत इससे भी ज्यादा ही होगी। अमेरिकी कंपनियों की वैक्सीन डेढ़ हजार रुपए तक की है तो रूसी वैक्सीन की कीमत भी साढ़े सात सौ रुपए के करीब होने का अनुमान है। सोचेंइस देश में 14 करोड़ से ज्यादा लोगों ने या तो मुफ्त में वैक्सीन लगवाई या ढाई सौ रुपए में लगवाई है। निजी अस्पतालों में जाकर ढाई सौ रुपए में डोज लगवाने वालों में अमीर और मध्य वर्ग दोनों के लोग शामिल हैं। तभी सवाल है कि बाकी लोगों को क्यों सात सौ या डेढ़ हजार रुपए में वैक्सीन की एक डोज लेनी चाहिए? यह भारत के संविधान में लिखा है कि सरकार किसी भी स्थिति में अपने नागरिकों से भेदभाव नहीं करेगी। फिर यह भेदभाव क्यों? कुछ लोगों ने पहले वैक्सीन लगवा ली तो उन्हें सस्ती मिलेगी और बाद में लगवाने वालों को महंगी मिलेगी ऐसा क्यों?

ऐसा लग रहा है कि केंद्र सरकार ने वैक्सीन की आपूर्ति कम होने और कीमत बढ़ने की वजह से अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ रही है। उसे आगे बढ़ कर नेतृत्व संभालना चाहिए। अगर प्रधानमंत्री ने ‘दुनिया के सबसे बड़े वैक्सीनेशन अभियान’ की शुरुआत की है और वैक्सीन लगवाने वालों को अपनी फोटो वाली सर्टिफिकेट बांटी है तो उनको ही इस अभियान को अंजाम तक पहुंचाना चाहिए। राज्यों और निजी अस्पतालों को वैक्सीन बनाने वाली कंपनियों से वैक्सीन की डोज, उसकी कीमत और आपूर्ति के समय के लिए मोलभाव करने के लिए छोड़ देने की बजाय केंद्र सरकार को यह काम खुद करना चाहिए। केंद्र ने बजट में 35 हजार करोड़ रुपए का प्रावधान वैक्सीन के लिए किया है। वह चाहे तो उससे भी वैक्सीन खरीद कर सभी राज्यों को दे सकती है। लेकिन अगर वह बजट में आवंटित पैसे से वैक्सीन नहीं खरीदना चाहती है तो राज्यों से पैसे लेकर वैक्सीन खरीद कर उसे प्राथमिकता तय करते हुए राज्यों को आवंटित कर सकती है।

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